Friday, January 15, 2010

खानाबदोश

चलते हैं जलती राह पर, एक पल को रुक ना पाये,
रात तारे चुन के काटी, दिन को रौंदे अपने साये,
रुक जायेंगे रुखसती पे, जीते जी तो चलना है,
मंजिलों को छोड़ पीछे, रोज़ घर बदलना है,
ना गुज़रे का कोई शिकवा, ना आगे के कोई सपने,
चंद बीती राहों के किस्से, बस हमसफ़र हैं अपने,
ये उम्र राह पे काटी, तो देखें जहाँ के मेले,
इक हम ही तो नहीं, मुसाफिर यहाँ अकेले,
सरपट दौड़ रही है दुनिया, कई ख्वाब आँखों में मीचे,
खानाबदोश है यहाँ हर कोई, अंधी हसरतों के पीछे।

1 comment:

  1. brilliant bhai....saari padh li 2010 ki aur unmein sabse uttam ye lagi...baaqi bhi bahut khoob hain....par ye awsum hai..

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