Friday, March 4, 2011

कालिख

सूरज सा जलना था,
तारों पे चलना था,
जीना था ज़िन्दगी से ज्यादा,
परबत उठाएंगे,
सागर पी जायेंगे,
ऐसा था अपना इरादा,
मगर,
वक़्त की मार से,
बच न पाया आशियाँ,
तिनका तिनका था चुना,
जा उड़ा यहाँ वहाँ,
ठूंठ जो बचे हैं वो,
पेड़ थे हरे भरे,
बैठे हैं मलाल कर,
हाथ हाथ पर धरे,
रात के ये अंधियारे,
जायेंगे गुज़र मगर,
वो कालिख छोड़ जायेंगे,
जो मिट ना पाए उम्र भर।

Tuesday, January 26, 2010

सन्नाटा

सुबह सुबह मैं जो निकला,
चाय पीने, धूप खाने,
दोस्तों से गप लड़ाने,
धूप तो थी, चाय ना थी,
खाली गलियाँ ग़म मनातीं,
जिनमें घुमते थे अकड़ में,
कुछ मोटे, कुछ मरगिल्ले,
चार कुत्ते, आठ पिल्ले,
सड़कें सूनी, दुकानों पर भी,
मोटे मोटे ताले पड़े थे,
और हर नुक्कड़ पे कुछ,
खाकी वर्दी वाले खड़े थे,
कुत्ते नहीं डरे,
मैं डर गया,
ज़रा उधर गया,
तो देखा एक सज्जन,
पीठ मेरी ओर कर,
सीटी बजाते हुए,
कर रहे थे दीवार तर,
मैंने उन्हें टोका,
बीच में रोका,
और पूछा,
"इतना सन्नाटा क्यों है भाई,
क्या कर्फ्यू लग गया है?"
वो बिगड़ कर बोले,
"कैसे भारतीय हो?
जानते नहीं, आज 26 जनवरी है।"
मैंने शर्मसार होकर कहा,
"आपकी ज़िप अब भी खुली पड़ी है,"

Friday, January 15, 2010

खानाबदोश

चलते हैं जलती राह पर, एक पल को रुक ना पाये,
रात तारे चुन के काटी, दिन को रौंदे अपने साये,
रुक जायेंगे रुखसती पे, जीते जी तो चलना है,
मंजिलों को छोड़ पीछे, रोज़ घर बदलना है,
ना गुज़रे का कोई शिकवा, ना आगे के कोई सपने,
चंद बीती राहों के किस्से, बस हमसफ़र हैं अपने,
ये उम्र राह पे काटी, तो देखें जहाँ के मेले,
इक हम ही तो नहीं, मुसाफिर यहाँ अकेले,
सरपट दौड़ रही है दुनिया, कई ख्वाब आँखों में मीचे,
खानाबदोश है यहाँ हर कोई, अंधी हसरतों के पीछे।

Sunday, January 3, 2010

रद्दी

कागज़ के हर एक रद्दी टुकड़े को,

सम्भाल के रखा जाता है उन घरों में,

जहाँ कोई स्कूल नहीं जाता,

वरना चूल्हा जलाने में तकलीफ होगी,

वो खुशकिस्मत हैं जिनके बच्चे पढने जाते हैं,

वो हर साल अगली कक्षा में कूद पड़ते हैं,

और अपने पीछे छोड़ जाते हैं ढेर सारी रद्दी,

जिसे उन्होने साल भर कलम घिस कर,

मार खा कर, रो कर, सर धुन कर,

स्याही से पोता था,

हर्फ़ हर्फ़ कर सर में ठूँसा था,

और परीक्षा में उत्तर पुस्तिका पर,

इसी ज्ञान की उलटी की थी,

सुनने में घिन आती है,

मगर सच्चाई इतनी ही घिनौनी है,

या शायद इससे भी कुछ ज्यादा,

खैर, जो भी हो, बच्चों ने खूब अँक बटोरे,

और माँ को उपहार में दी ढेर सारी रद्दी,

जो इस ज्ञान के भण्डार को,

साल भर चूल्हे में फूँकेगी,

इस रद्दी का इससे अच्छा उपयोग हो भी नही सकता।

Tuesday, December 22, 2009

यहाँ...

ख़ाली ख़ुद से बातें करना, सबके बस की बात नहीं,
तनहाई में घुट-घुट मरना, सबके बस की बात नही,
जिन गलियों में शाम-सहर, मरघट सा सन्नाटा हो,
उन गलियों से रोज़ गुजरना, सबके बस की बात नहीं,
यूँ तो ज़िंदा चिता पे बैठे, हँस-हँस कई जला करते हैं,
जल जल कर पर और निखरना, सबके बस की बात नहीं,
जिसको दाना-दाना देकर, ख़ुद उड़ना सिखलाया हो,
उस चिड़िया के पंख कतरना, सबके बस की बात नहीं,
यूँ तो सबको इक ना इक दिन, जाना है उस और मगर,
रोज़ मौत के घाट उतरना, सबके बस की बात नहीं।

Thursday, November 19, 2009

आओ देखें...

आओ देखें क्या होता है,
जब चाँद-सुनहरी रातों में,
कुछ तिनके ले के हाथों में,
बालू की गीली छाती पर,
कुछ हर्फ़ उकेरे जाते हैं,
आओ देखें क्या होता है।
आसमान के कोरे मन पर,
मटमैली सी स्याही ले कर,
आँखें मीचे, बायें हाथ से,
जब चित्र बिखेरे जाते हैं,
आओ देखें क्या होता है।
जब सर आकाश में उड़ते हैं,
पर पाँव ज़मीं पर पड़ते हैं,
आसमान में हाथ उठा,
जब मेघ निचोड़े जाते हैं,
आओ देखें क्या होता है।
जब पत्थर सोचा करते हैं,
जब गूंगे बोलने लगते हैं,
जब भीड़ गवाही देती है,
जब सच बटोरे जाते हैं,
आओ देखें क्या होता है।